Natasha

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राजा की रानी

राजलक्ष्मी ने चट से मेरे मुँह को अपने हाथ से दबा दिया। कहा, “अगर और कुछ ज्यादा कहा, तो पैरों में सिर पटककर मर जाऊँगी।” फिर खुद ही अप्रतिम हो हाथ हटाकर बोली, “कमललता दीदी, अपने बड़े गुसाईंजी से कह आओ बहन, आज बाबाजी महाशय के कीर्तन के बाद ही मैं देवता को गाना सुनाऊँगी।”


कमललता ने संदिग्ध कण्ठ से कहा, “लेकिन बहिन, बाबाजी बड़े टीका-टिप्पणी करने वाले हैं।”

राजलक्ष्मी ने कहा, “भले ही हों, भगवान का नाम तो होगा।” विग्रह मूर्तियों को हाथ से दिखाते हुए कहा, “ये शायद खुश हों। और बाबाजीओं का तो मैं उतना खयाल नहीं करती बहिन, पर मेरे ये दुर्वासा-देवता प्रसन्न हो जाँय तो जान में जान आये!”

“प्रसन्न होने पर लेकिन बखशीश मिलेगी!”

राजलक्ष्मी ने सभय कहा, “रक्षा करो, गुसाईं, कहीं सबके सामने बखशीश देने मत आ जाना। तुम्हारे लिए असम्भव कुछ भी नहीं है।”

सुनकर वैष्णवियाँ हँसने लगीं, पद्मा खुश होने पर ताली बजाने लगती है। बोली, “मैं स-म-झ-ग-ई।”

कमललता ने उसकी तरफ सस्नेह देखकर हँसते हुए कहा, “दूर हटकलमुँही-चुप रह।” राजलक्ष्मी से बोली, “इसे ले जाओ बहन, क्या मालूम अचानक क्या कह बैठे।”

देवता की संध्यात-आरती के बाद कीर्तन की बैठक जमी। आज बहुत-से दीपक जल रहे थे। वैष्णव-समाज में मुरारीपुर का आश्रम नितान्त अप्रसिद्ध नहीं है, नाना स्थानों से कीर्तन करने वाले वैरागियों के दल आने पर इस तरह का आयोजन अक्सर हुआ करता है। मठ में सब तरह के वाद्ययन्त्र मौजूद रहते हैं, देखा कि वे सब हाजिर कर दिये गये हैं। एक ओर वैष्णवियाँ बैठी हैं, सब परिचित हैं, दूसरी ओर अज्ञात-कुलशील अनेक वैरागी-मूर्तियाँ हैं, नाना उम्र और तरह-तरह के चेहरों की। बीच में विख्यात मनोहरदास और उनके मृदंगवादक आसीन हैं। मेरे कमरे पर हाल में ही दखल करने वाले नवयुवक बाबाजी हारमोनियम में सुर दे रहे हैं। यह प्रचार हो गया है कि कलकत्ते से एक सम्भ्रान्त घर की महिला आई हैं- वे ही गाना गायेंगी। वे युवती हैं और धनवती, उनके साथ आये हैं, दास-दासी, आयें हैं अनेक प्रकार के खाद्य-समूह और कोई एक नया गुसाईं भी आया है- वह है यहीं का एक घुमक्कड़।

मनोहरदास की कीर्तन की भूमिका और गौर-चन्द्रिका के* बीच राजलक्ष्मी कमललता के पास आकर बैठ गयी। हठात् बाबाजी महोदय का गला कुछ काँपकर सँभल गया, मृदंग पर थपकी नहीं पड़ी। यह एक नितान्त दैव की ही लीला थी। सिर्फ द्वारिकादास दीवार के सहारे जैसे ऑंखें बन्द किये बैठे थे वैसे ही बैठे रहे। क्या मालूम, शायद वे जान ही न पाये कि कौन आया और कौन नहीं।

राजलक्ष्मी एक नीलाम्बरी साड़ी पहनकर आई है, और उसकी महीन जरी की किनारी के साथ नीले रंग का ब्लाउज मिलकर एक हो गया है। बाकी सब वैसा ही है, सिर्फ सुबह की उड़िया पण्डे की लगाई हुई छापें इस वक्त बहुत कुछ मिट गयी हैं- जो छापें बाकी बची हैं वे मानो आश्विन के छिन्न-भिन्न मेघ हैं जो न जाने कब नील आकाश में बिला जाँयगे। वह अति शिष्ट शान्त है, उसने मेरी ओर कटाक्ष से भी न ताका- मानो पहिचानती ही नहीं, तो भी क्यों उसने अपनी जरा-सी हँसी दबा दी, यह वही जाने। अथवा मेरी भी भूल हो सकती है; असम्भव तो है नहीं।

आज बाबाजी महाराज का गाना जमा नहीं, पर यह उनके अपने दोष से नहीं, लोगों की अधीरता के कारण। द्वारिकादास ने ऑंखें खोल राजलक्ष्मी का आह्नान कर कहा, “दीदी, हमारे देवता को अब तुम कुछ निवेदन करके सुनाओ, सुनकर हम भी धन्य हों।”

राजलक्ष्मी उसी ओर मुँह करके बैठ गयी। द्वारिकादास ने मृदंग की ओर अंगुली से इशारा कर पूछा, “इससे कोई बाधा तो पैदा न होगी?”

राजलक्ष्मी ने कहा, “नहीं।”

यह सुनकर सिर्फ वे ही नहीं, बल्कि मनोहरदास भी मन ही मन कुछ विस्मित हुए, क्योंकि, एक साधारण स्त्री से शायद उन्होंने इतनी आशा नहीं की थी।

गाना शुरू हुआ। संकोच की जड़ता-अज्ञता की दुविधा कहीं भी नहीं है- नि:संशय कण्ठ अबाध जलस्रोत की तरह प्रवाहित होने लगा। जानता हूँ, इस विद्या में वह सुशिक्षिता है- यह उसकी जीविका थी, पर खयाल नहीं था कि बंगाल के अपने संगीत की इस धारा पर भी उसने इतने यत्न के साथ अधिकार कर रक्खा है। किसे मालूम था कि प्राचीन और आधुनिक वैष्णव कवियों की इतनी विभिन्न पदावलियों को उसने कण्ठस्थ कर रक्खा होगा। सिर्फ सुर, ताल और लय में नहीं, बल्कि वाक्य की विशुद्धता,

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